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गिरने का बहुत डर है ऐ दिल न फिसल जाना | शाही शायरी
girne ka bahut Dar hai ai dil na phisal jaana

ग़ज़ल

गिरने का बहुत डर है ऐ दिल न फिसल जाना

जमीला ख़ुदा बख़्श

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गिरने का बहुत डर है ऐ दिल न फिसल जाना
इस बाम-ए-मोहब्बत पर मुश्किल है सँभल जाना

दिल मेरी सुने क्यूँकर समझाऊँ उसे क्या मैं
वहशत ने सिखाया है क़ाबू से निकल जाना

वो तेरे फ़क़ीरों को आँखों से ज़रा देखे
जिस ने नहीं देखा है क़िस्मत का बदल जाना

दिखलाओ रुख़-ए-ज़ेबा ता मुझ को क़रार आए
आसाँ नहीं आशिक़ का बातों में बहल जाना

कमज़ोर किया मुझ को अब ज़ोफ़-ए-नक़ाहत ने
ऐ इश्क़ ज़रा मेरे पहलू को बदल जाना

जलना तुम्हें इस दिल का मैं आज दिखाऊँगा
तुम ने नहीं देखा है इक पर्चे का जल जाना

आशिक़ तिरी महफ़िल से उठता है यही कह कर
याँ मजमा-ए-दुश्मन है अब चाहिए टल जाना

सर-गश्तगी-ए-आशिक़ क्या तुम को बताऊँ मैं
तक़दीर बदलना है आँखों का बदल जाना

नादान तबीबों को क्या नब्ज़ दिखाऊँ मैं
आज़ार-ए-मोहब्बत को सौदा का ख़लल जाना

वहशत है फ़ुज़ूँ दिल की तन्हा न चला जाए
लाज़िम है 'जमीला' अब सहरा को निकल जाना