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गिरना नहीं है और सँभलना नहीं है अब | शाही शायरी
girna nahin hai aur sambhalna nahin hai ab

ग़ज़ल

गिरना नहीं है और सँभलना नहीं है अब

मुग़नी तबस्सुम

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गिरना नहीं है और सँभलना नहीं है अब
बैठे हैं रहगुज़ार पे चलना नहीं है अब

पिछ्ला पहर है शब का सवेरे की ख़ैर हो
बुझते हुए चराग़ हैं जलना नहीं है अब

है आस्तीं से काम न दामन से कुछ ग़रज़
पत्थर बने हुए हैं पिघलना नहीं है अब

मंज़र ठहर गया है कोई दिल में आन कर
दुनिया के साथ उस को बदलना नहीं है अब

लब-आशना-ए-हर्फ़-ए-तबस्सुम नहीं रहे
दिल के लहू को अश्क में ढलना नहीं है अब