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गिरफ़्तारी के सब हरबे शिकारी ले के निकला है | शाही शायरी
giraftari ke sab harbe shikari le ke nikla hai

ग़ज़ल

गिरफ़्तारी के सब हरबे शिकारी ले के निकला है

रऊफ़ ख़ैर

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गिरफ़्तारी के सब हरबे शिकारी ले के निकला है
परिंदा भी शिकारी की सुपारी ले के निकला है

निकलने वाला ये कैसी सवारी ले के निकला है
मदारी जैसे साँपों की पिटारी ले के निकला है

बहर-क़ीमत वफ़ादारी ही सारी ले के निकला है
हथेली पर अगर वो जान प्यारी ले के निकला है

सफ़ारी सूट में टाटा सफ़ारी ले के निकला है
वो लेकिन ज़ेहन ओ दिल पर बोझ भारी ले के निकला है

यक़ीनन हिजरतों की जानकारी ले के निकला है
अगर अपने ही घर से बे-क़रारी ले के निकला है

खिलौने की तड़प में ख़ुद खिलौना वो न बन जाए
मिरा बच्चा सड़क पर रेज़गारी ले के निकला है

अगर दुनिया भी मिल जाए रहेगा हाथ फैलाए
अजब कश्कोल दुनिया का भिकारी ले के निकला है

ख़ता-कारी मिरी उम्मीद-वार-ए-दामन-ए-रहमत
मगर मुफ़्ती तो क़ुरआन ओ बुख़ारी ले के निकला है

झलकता है मिज़ाज-ए-शहरयारी हर बुन-ए-मू से
ब-ज़ाहिर 'ख़ैर' हर्फ़-ए-ख़ाकसारी ले के निकला है