गिरफ़्त-ए-कर्ब से आज़ाद ऐ दिल हो ही जाऊँगा
अभी रस्ता हूँ मैं इक रोज़ मंज़िल हो ही जाऊँगा
उतर जाने दे वहशत मेरे सर से हब्स-ए-ख़ल्वत की
मैं बित-तदरीज फिर मानूस-ए-महफ़िल हो ही जाऊँगा
गिरे गर मुझ पे बर्क़-ए-इल्तिफ़ात-ए-चश्म-ए-तर हर दम
तो मैं बिल-जब्र तेरी सम्त माइल हो ही जाऊँगा
ब-सद तरकीब रक्खे हैं क़दम तरतीब से मैं ने
अगर तरतीब ये बिगड़ी मैं ज़ाइल हो ही जाऊँगा
मता-ए-जाँ तो मेरी ज़ात का हिस्सा है इक दिन मैं
तू मिल जाएगा तो इंसान-ए-कामिल हो ही जाऊँगा
मिरी मज़लूमियत की रौशनी हर-सू बिखरने दे
सर-ए-मक़्तल मैं पेश-ए-तेग़-ए-क़ातिल हो ही जाऊँगा
ज़रा सा ठहर जाएँ बे-ख़ुदी की मुज़्तरिब मौजें
ऐ दश्त-ए-ग़म मैं इक ख़ामोश साहिल हो ही जाऊँगा
पयम्बर दर्द का बन के तू गर दुनिया में आएगा
सहीफ़ा बन के अश्कों का मैं नाज़िल हो ही जाऊँगा
कहा उस ने क़रीब आ कर 'नदीम' अशआ'र की सूरत
रग-ए-अफ़्क़ार में तेरी मैं शामिल हो ही जाऊँगा
ग़ज़ल
गिरफ़्त-ए-कर्ब से आज़ाद ऐ दिल हो ही जाऊँगा
नदीम सिरसीवी