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गिरानी-ए-शब-ए-हिज्राँ दो-चंद क्या करते | शाही शायरी
girani-e-shab-e-hijran do-chand kya karte

ग़ज़ल

गिरानी-ए-शब-ए-हिज्राँ दो-चंद क्या करते

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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गिरानी-ए-शब-ए-हिज्राँ दो-चंद क्या करते
इलाज-ए-दर्द तिरे दर्दमंद क्या करते

वहीं लगी है जो नाज़ुक मक़ाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्त-ए-अदू के गज़ंद क्या करते

जगह जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद उन्हें ना-पसंद क्या करते

हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूँ वर्ना
हमें असीर ये कोतह-कमंद क्या करते

जिन्हें ख़बर थी कि शर्त-ए-नवागरी क्या है
वो ख़ुश-नवा गिला-ए-क़ैद-ओ-बंद क्या करते

गुलू-ए-इश्क़ को दार-ओ-रसन पहुँच न सके
तो लौट आए तिरे सर-बुलंद क्या करते