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गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर | शाही शायरी
gir gae jab sabz manzar TuT kar

ग़ज़ल

गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर

ज़फ़र ताबिश

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गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर
रह गया मैं अपने अंदर टूट कर

सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर

मैं सिमट जाऊँगा ख़ुद ही दोस्तो
मैं बिखर जाता हूँ अक्सर टूट कर

और भी घर आँधियों की ज़द में थे
गिर गया उस का ही क्यूँ घर टूट कर

रो रहा है आज भी तक़दीर पर
सब्ज़-गुम्बद से वो पत्थर टूट कर

अब नहीं होता मुझे एहसास कुछ
मैं हूँ अब पहले से बेहतर टूट कर

चंद ही लम्हों में 'ताबिश' बह गया
मेरी आँखों से समुंदर टूट कर