गिले शिकवे के दफ़्तर आ गए तुम 
अरे 'सानी' कहाँ घर आ गए तुम 
कहानी ख़त्म होने जा रही थी 
नया इक मोड़ ले कर आ गए तुम 
हँसी में टालने ही जा रहा था 
मिरी आँखों में क्यूँ भर आ गए तुम 
ज़माना ताक में बैठा हुआ था 
ज़माने भर से बच कर आ गए तुम 
मैं जी लूँगा इसी इक पल में जीवन 
कि जिस पल में मयस्सर आ गए तुम 
मिरे सीने पे अपना बोझ रखना 
अगर बाँहों में थक कर आ गए तुम 
दुआ में हाथ थकते जा रहे थे 
अभी गिरते कि यकसर आ गए तुम 
हमारा ज़र्फ़ था सो चुप रहे हम 
मगर आपे से बाहर आ गए तुम 
बसा-औक़ात तुम को भूल रखा 
मगर यादों में अक्सर आ गए तुम 
अभी तुम से ही मिलने आ रहा था 
चलो अच्छा हुआ गर आ गए तुम 
मोहब्बत की वकालत कर रहे हो 
तो क्या 'सानी' से मिल कर आ गए तुम
        ग़ज़ल
गिले शिकवे के दफ़्तर आ गए तुम
वजीह सानी

