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गिला तिरे फ़िराक़ का जो आज-कल नहीं रहा | शाही शायरी
gila tere firaq ka jo aaj-kal nahin raha

ग़ज़ल

गिला तिरे फ़िराक़ का जो आज-कल नहीं रहा

आरिफ़ इशतियाक़

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गिला तिरे फ़िराक़ का जो आज-कल नहीं रहा
तो क्यूँ भला ये मुस्तक़िल अज़ाब टल नहीं रहा

मैं किस से इल्तिजा करूँ कहाँ से इब्तिदा करूँ
दुआ अहल रही नहीं गिला बदल नहीं रहा

मैं रास्तों की भीड़ में कहाँ ये आ गया कि अब
कोई भी रास्ता तिरी गली निकल नहीं रहा

वो नक़्श-ए-पा को देख कर चला हो मुझ को ढूँडने
इसी गुमान के एवज़ मैं तेज़ चल नहीं रहा

फ़क़त यही है आरज़ू तू मिल कहीं तो रू-ब-रू
ये दिल तिरे फ़िराक़ में कहीं सँभल नहीं रहा