गिला ऐ दिल अभी से करता है
इश्क़ का दम उसी पे भरता है
जान देता है ऐश-ए-फ़ानी पर
बस इसी ज़िंदगी पे मरता है
राहत-ए-जावेदाँ को भूल गया
कोई दुनिया में ये भी करता है
इश्क़ बन कर जिए तो ख़ाक जिए
ज़िंदा वो है जो उन पे मरता है
नाम पर उस के सब जो दे बैठा
वही इक है जो नाम करता है
वक़्फ़ मोमिन है आज़माइश-ए-इश्क़
इस में पूरा वही उतरता है
जिस को दुनिया ने ना-मुराद किया
वही नाकाम काम करता है
है मुसलमाँ की बस यही पहचान
कि फ़क़त इक ख़ुदा से डरता है
क़ौल-ए-मोमिन है उस के फ़ेल की शरह
वो जो कहता है कर गुज़रता है
मुतमइन रह दिला वो जान-ए-जहाँ
वादा कर के कहीं मुकरता है
मेरे रंग-ए-कफ़न की शोख़ी देख
यूँ ही आशिक़ तिरा सँवरता है
आज कर लो जो कर सको कल तक
कौन जीता है कौन मरता है
क़ुल्ज़ुम-ए-इश्क़ में गिरा सो गिरा
उस का डूबा कहीं उभरता है
इस क़दर एहतियात ऐ सय्याद
कि क़फ़स में भी पर कतरता है
वही दिन है हमारी ईद का दिन
जो तिरी याद में गुज़रता है
मय-ए-इस्लाम का भला 'जौहर'
नश्शा चढ़ कर कहीं उतरता है
ग़ज़ल
गिला ऐ दिल अभी से करता है
मोहम्मद अली जौहर