गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त
कब हो ऐसा बहार-दार दरख़्त
रश्क से इक निहाल क़द के तिरे
कट गए जल गए हज़ार दरख़्त
ख़्वाहिश-ए-संग थी जो मजनूँ को
क़ब्र पर भी है मेवा-दार दरख़्त
किस की वहशत ने ख़ाक उड़ाई है
दश्त में हैं जो पुर-ग़ुबार दरख़्त
दामन-ए-यार उस से उलझेगा
हो न गुलशन में ख़ार-दार दरख़्त
नाला-ए-कोहकन से जल उट्ठे
थे जो बाला-ए-कोहसार दरख़्त
दस्त-ए-रंगीं का उस के कुश्ता हूँ
हो हिना का सर-ए-मज़ार दरख़्त
जिस जगह दफ़्न था ये सोख़्ता-जाँ
न उगा वाँ से ज़ीनहार दरख़्त
ज़ीनत-ए-ख़ाना-बाग़ कौन है आज
सज्दा करते हैं बार-दार दरख़्त
बर्ग मलते हैं जो कफ़-ए-अफ़सोस
किस के ग़म में हैं सोगवार दरख़्त
गुलशन-ए-इश्क़ का तमाशा देख
सर-ए-मंसूर फल है दार दरख़्त
देखें गर तेरे क़द की बालाई
सर उठाएँ न ज़ीनहार दरख़्त
बे-समर इक रहा ये नख़्ल-ए-मुराद
यूँ तो फूले-फले हज़ार दरख़्त
तेरी दूरी में ऐ गुल-ए-ख़ूबी
सूख कर हो गए हैं ज़ार दरख़्त
सफ़-ब-सफ़ हैं खड़े जो गुलशन में
कब से बाँधे हुए क़तार दरख़्त
देखते हैं सू-ए-दर-ए-गुलज़ार
किस के हैं महव-ए-इंतिज़ार दरख़्त
मौसम-ए-गुल है जोश-ए-मस्ती है
लाए गुलशन में बर्ग-ओ-बार दरख़्त
जी में आता है मय-कशी कीजे
ताक कर कोई साया-दार दरख़्त
आलम-ए-शेब में हूँ यूँ 'ग़ाफ़िल'
बाग़ में जैसे बे-बहार दरख़्त

ग़ज़ल
गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल