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गिल भीक में लेते हैं जिस फूल से रानाई | शाही शायरी
gil bhik mein lete hain jis phul se ranai

ग़ज़ल

गिल भीक में लेते हैं जिस फूल से रानाई

शुजा

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गिल भीक में लेते हैं जिस फूल से रानाई
हम को भी मयस्सर है उस नाम से तन्हाई

दोनों के मुक़द्दर की गर्दिश ही निराली है
ये क़ल्ब थका-हारा वो लाला-ए-सहराई

क्यूँ ख़ल्क़ का शौक़ आया कोई किब्र से जा पूछे
क्या चीज़ थी तन्हाई? क्या ख़ूब थी यकताई?

यक-तरफ़ा मोहब्बत का हर रंग निराला है
बेगाना करे जग से ये रहमत-ए-रुस्वाई

तड़पे हैं मलाएक भी वो क़हर था आँखों में
देखा तिरा शैदाई तो मौत भी घबराई

दम साधे वो शब आया इक दीप जला लाया
तुर्बत पे असीरों की बजती रही शहनाई