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घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो | शाही शायरी
ghuT ke mar jaane se pahle apni diwar-e-nafas mein dar nikalo

ग़ज़ल

घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो

मोहम्मद अहमद रम्ज़

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घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो
दर्द के वीराँ खंडर से मंज़र-ए-बे-नाम को बाहर निकालो

अब ये आलम है कि हर-सू मावरा-ए-मुंतहा तक हैं उड़ानें
आशियाँ तो इक क़फ़स है बाहर आ भी जाओ बाल-ओ-पर निकालो

ख़ुद तुम्हारे अपने ज़द पर आ रहे हैं इतनी सफ़्फ़ाकी भी छोड़ो
कुछ ज़ियादा हो गया है तेग़-ए-इरशादात से जौहर निकालो

देख लेना मात खा जाएगा शह पा कर ये टेढ़ा चलने वाला
चाल उलझी है कोई पैदल जमाए रक्खो कोई घर निकालो

आँखें खोलो अब तो मेरे ज़ख़्म-ए-दिल भी मुंदमिल होने लगे हैं
मान जाओ फिर कोई तलवार उठाओ फिर कोई ख़ंजर निकालो

तह-नशीं मौजों के पहरे सख़्त कर देता है क़स्र-ए-आब पर वो
ख़ून पानी कर के अपना पत्थरों की ओट से गौहर निकालो

अब ख़ुदा जाने कहाँ ले जा के बिखराए हवा-ए-वक़्त मुझ को
आओ हाथ अपना बढ़ा कर तुम भी मेरी ख़ाक चुटकी-भर निकालो

किस लिए 'रम्ज़' इतनी ऊँची तुम ने कर रक्खी हैं दीवारें हुनर की
देखो अपने साथियों को रौज़न-ए-ख़ुद-आगही से सर निकालो