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घिसते घिसते पाँव में ज़ंजीर आधी रह गई | शाही शायरी
ghiste ghiste panw mein zanjir aadhi rah gai

ग़ज़ल

घिसते घिसते पाँव में ज़ंजीर आधी रह गई

आग़ा हज्जू शरफ़

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घिसते घिसते पाँव में ज़ंजीर आधी रह गई
आधी छुटने की हुई तदबीर आधी रह गई

नीम बिस्मिल हो के मैं तड़पा तो वो कहने लगे
चूक तुझ से हो गई ताज़ीर आधी रह गई

शाम से थी आमद आमद निस्फ़ शब को आए वो
यावरी कर के मिरी तक़दीर आधी रह गई

निस्फ़ शहर उस गेसू-ए-मुश्कीं ने दिल-बस्ता किया
ख़ुसरव-ए-तातार की तौक़ीर आधी रह गई

चौदहवीं शब ना-मुबारक माह-ए-कामिल को हुई
निस्फ़ मंसब हो गया जागीर आधी रह गई

तेज़ कब तक होगी कब तक बाढ़ रक्खी जाएगी
अब तो ऐ क़ातिल तिरी शमशीर आधी रह गई

आधे धड़ का दम निकलता था कि आया ख़त्त-ए-शौक़
पढ़ते पढ़ते मर गए तहरीर आधी रह गई

रंग फिरने भी न पाया था कि ख़ुद-रफ़्ता हुआ
बन के 'मानी' से तिरी तस्वीर आधी रह गई

निस्फ़ शब तक दी तसल्ली फिर वो यूसुफ़ उठ गया
ख़्वाब-ए-हसरत की मिरी ताबीर आधी रह गई

ख़ुद कहा क़ातिल से मैं ने फिर दोबारा ज़ब्ह कर
कट के जब गर्दन दम-ए-तकबीर आधी रह गई

दोपहर रात आ चुकी जब गुफ़्तुगू की इश्क़ की
यार से आधी हुई तक़रीर आधी रह गई

इम्तिहान में कुंदनी रंग उन का दूना हो गया
उड़ते उड़ते सुर्ख़ी-ए-इक्सीर आधी रह गई

ऐ परी-रू जल्द ज़िंदाँ में 'शरफ़' की ले ख़बर
टुकड़े कर के फेंक दी ज़ंजीर आधी रह गई