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घिरे हैं चारों तरफ़ बेकसी के बादल फिर | शाही शायरी
ghire hain chaaron taraf bekasi ke baadal phir

ग़ज़ल

घिरे हैं चारों तरफ़ बेकसी के बादल फिर

रफ़ीआ शबनम आबिदी

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घिरे हैं चारों तरफ़ बेकसी के बादल फिर
सुलग रहा है सितारों भरा इक आँचल फिर

बस एक बार उन आँखों को उस ने चूमा था
हमेशा नम ही रहा आँसुओं से काजल फिर

ये कैसी आग है जो पोर पोर रौशन है
ये किस ने रख दी मिरी उँगलियों पे मशअ'ल फिर

फिर अब की बार लहू-रंग बारिशें बरसें
किसी ने काट दिए हैं सरों के जंगल फिर

रगों में तपती हुई ख़ुशबुएँ मचलने लगीं
मला बदन पे नए मौसमों ने संदल फिर

कहीं तो रेत से चश्मा निकल ही आएगा
भटक रहा है वो काँधों पे ले के छागल फिर

फिर उस अकेली भरी दोपहर ने झुलसा है
कि याद आने लगा सुब्ह से वो पागल फिर