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घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में | शाही शायरी
ghir ke ghabraate na the hijr ke aazaron mein

ग़ज़ल

घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में

मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी

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घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में
जब कि ताक़त थी कभी आप के बीमारों में

ले के हम दिल गए कहते ये जफ़ा-कारों में
कौन लेता है इसे इतने ख़रीदारों में

दी रिहाई मुझे सय्याद ने ऐ वाए नसीब
दख़्ल जब फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का हुआ गुलज़ारों में

मेरे मरने का हुआ रंज हर इक क़ैदी को
कि है कोहराम बपा तेरे गिरफ़्तारों में

दस्त-ए-नाज़ुक से मुझे जाम दिया साक़ी ने
आबरू बढ़ गई और आज से मय-ख़्वारों में

आतिश-ए-हिज्र से क्या डर जो तिरी मर्ज़ी से
रात कर देंगे बसर लोट के अँगारों में

फेंक देना न कहीं भूल के हंगाम-ए-सहर
दिल भी लिपटा है इन्हीं सूखे हुए हारों में

नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा न जिसे फाँद सके
ये बुलंदी तो नहीं बाग़ की दीवारों में

निकला वो तीर-ए-निगह भी तो ये कह कर निकला
मेरा दामन न उलझ जाए कहीं ख़ारों में

यूँ सुनाई गई है उस को ख़बर 'आलिम' की
मर गया कोई तिरे ताज़ा गिरफ़्तारों में