घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में
जब कि ताक़त थी कभी आप के बीमारों में
ले के हम दिल गए कहते ये जफ़ा-कारों में
कौन लेता है इसे इतने ख़रीदारों में
दी रिहाई मुझे सय्याद ने ऐ वाए नसीब
दख़्ल जब फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का हुआ गुलज़ारों में
मेरे मरने का हुआ रंज हर इक क़ैदी को
कि है कोहराम बपा तेरे गिरफ़्तारों में
दस्त-ए-नाज़ुक से मुझे जाम दिया साक़ी ने
आबरू बढ़ गई और आज से मय-ख़्वारों में
आतिश-ए-हिज्र से क्या डर जो तिरी मर्ज़ी से
रात कर देंगे बसर लोट के अँगारों में
फेंक देना न कहीं भूल के हंगाम-ए-सहर
दिल भी लिपटा है इन्हीं सूखे हुए हारों में
नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा न जिसे फाँद सके
ये बुलंदी तो नहीं बाग़ की दीवारों में
निकला वो तीर-ए-निगह भी तो ये कह कर निकला
मेरा दामन न उलझ जाए कहीं ख़ारों में
यूँ सुनाई गई है उस को ख़बर 'आलिम' की
मर गया कोई तिरे ताज़ा गिरफ़्तारों में
ग़ज़ल
घिर के घबराते न थे हिज्र के आज़ारों में
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी