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घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे | शाही शायरी
ghaTaen chhai hain saghar uTha le jis ka ji chahe

ग़ज़ल

घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे

नवाब मोअज़्ज़म जाह शजीअ

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घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे
ये मय-ख़ाना है क़िस्मत आज़मा ले जिस का जी चाहे

मोहब्बत करने वालों का जहाँ में कौन होता है
कोई अपना नहीं हम को सता ले जिस का जी चाहे

ग़म-ए-दौराँ से बचना ज़िंदगी में ग़ैर-मुमकिन है
ग़म-ए-जानाँ को सीने से लगा ले जिस का जी चाहे

किसे मिलती है फ़ुर्सत उम्र-भर आँसू बहाने से
कली की तरह दम-भर मुस्कुरा ले जिस का जी चाहे

'शजीअ' इस ज़िंदगी में हम तलबगार-ए-मोहब्बत हैं
मोहब्बत से हमें अपना बना ले जिस का जी चाहे