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घटा है बाग़ है मय है सुबू है जाम है साक़ी | शाही शायरी
ghaTa hai bagh hai mai hai subu hai jam hai saqi

ग़ज़ल

घटा है बाग़ है मय है सुबू है जाम है साक़ी

कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

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घटा है बाग़ है मय है सुबू है जाम है साक़ी
अब इस के ब'अद जो कुछ है वो तेरा काम है साक़ी

उमीद-ए-वस्ल रखना इक ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
बुरा तो कुछ नहीं लेकिन मज़ाक़-ए-आम है साक़ी

फ़लक दुश्मन मुख़ालिफ़ गर्दिश-ए-अय्याम है साक़ी
मगर हम हैं तिरी महफ़िल है दौर-ए-जाम है साक़ी

जो अपनी हर नज़र से इक ख़ुदा तख़्लीक़ करते हैं
उन्हें दैर ओ हरम सी चीज़ से क्या काम है साक़ी

उदासी सर्द आहें कर्ब हसरत दर्द मजबूरी
मोहब्बत तल्ख़ियों का एक शीरीं नाम है साक़ी

जिन्हें शौक़-ए-तलब है और जिन्हें ज़ौक़-ए-तजस्सुस है
उन्हें कोह-ओ-बयाबाँ मंज़िल-ए-यक-गाम है साक़ी