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घट गई है क़द्र-ओ-क़ीमत आज के इंसान की | शाही शायरी
ghaT gai hai qadr-o-qimat aaj ke insan ki

ग़ज़ल

घट गई है क़द्र-ओ-क़ीमत आज के इंसान की

मंसूर ख़ुशतर

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घट गई है क़द्र-ओ-क़ीमत आज के इंसान की
हम पे ग़ालिब हो गईं मक्कारियाँ शैतान की

जिस तरह भी देखिए दहशत का इक माहौल है
इक खिलौने के बराबर हैसियत है जान की

अब दुकाँ बाज़ार में अहल-ए-ख़िरद की बंद है
अब इजारा-दारी है दानाई पर नादान की

मैं ने ये सच्चाई जानी है बहुत खोने के बा'द
दोस्ती अच्छी नहीं होती कभी नादान की

ज़िंदगी की मुश्किलों का हल है अपना हौसला
कुछ उसी से होती है खेती हरी अरमान की

ज़ोर-ए-बातिल को ज़माने में मयस्सर है फ़रोग़
आबरू ख़तरे में है अब साहिब-ए-ईमान की

ज़िंदा रहना आज कल 'ख़ुशतर' बहुत दुश्वार है
बाला-दस्ती आज देखी जाती है बलवान की