EN اردو
घर से हमें जाने की ज़रूरत नहीं अब कुछ | शाही शायरी
ghar se hamein jaane ki zarurat nahin ab kuchh

ग़ज़ल

घर से हमें जाने की ज़रूरत नहीं अब कुछ

महशर बदायुनी

;

घर से हमें जाने की ज़रूरत नहीं अब कुछ
बाहर की हवा आ के बता जाती है सब कुछ

क्या तेज़ है ये मौसम-ए-बारान-ए-सुख़न भी
लबरेज़ी-ए-दिल कुछ है नवा-ख़ेज़ी-ए-लब कुछ

क्या दाम-ए-फ़ुसूँ ज़िंदा चराग़ों के लिए थे
अंदाज़ा-ए-शब हम को हुआ आख़िर-ए-शब कुछ

आम इतना रहा शोहरा-ए-ज़र शोर-ए-सरा में
काम आई नहीं नर्मी-ए-तहज़ीब-ओ-नसब कुछ

चुप हैं कि इक आशोब-ए-मलामत में घिरे हैं
आए थे सुबुक लहजे लिए ख़ैर-तलब कुछ

इक शख़्स से पैमान बहुत सोच के बाँधा
फिर हम ने तराशा नहीं रंजिश का सबब कुछ

ऐ ज़ी-हुनराँ तेज़-रवाँ अस्र-मुरीदाँ
हम लोग दुआ-गो हैं हमारा भी अदब कुछ