घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
इतनी गहरी नींद तो पहले कभी सोया न था
नश्शा-ए-आवारगी जब कम हुआ तो ये खुला
कोई भी रस्ता मिरे घर की तरफ़ जाता न था
क्या गिला इक दूसरे से बेवफ़ाई का करें
हम ने ही इक दूसरे को ठीक से समझा न था
गुल न थे जिस में वो गुलशन भी था जंगल की तरह
घर वो क़ब्रिस्तान था जिस में कोई बच्चा न था
आसमाँ पर था ख़ुदा तन्हा मगर 'आरिफ़-शफ़ीक़'
इस ज़मीं पर कोई भी मेरी तरह तन्हा न था
ग़ज़ल
घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
आरिफ़ शफ़ीक़