EN اردو
घर में जब बेटियाँ नहीं होंगी | शाही शायरी
ghar mein jab beTiyan nahin hongi

ग़ज़ल

घर में जब बेटियाँ नहीं होंगी

बिल्क़ीस ख़ान

;

घर में जब बेटियाँ नहीं होंगी
पेड़ पर टहनियाँ नहीं होंगी

ग़म से समझौता कर लिया दिल ने
अब यहाँ सिसकियाँ नहीं हूँ

मैं कि दौर-ए-जदीद की लड़की
पाँव में बेड़ियाँ नहीं होंगी

वापसी का है सोचना बे-सूद
अब जली कश्तियाँ नहीं होंगी

अब दियों को बचाना वाजिब है
आँधियाँ मेहरबाँ नहीं होंगी

बारिशों के सफ़र पे निकले हो
सर पे अब छतरियाँ नहीं होंगी

ये मुसलसल रहेंगी मेरे साथ
हिज्र में छुट्टियाँ नहीं होंगी

दस्त-ओ-बाज़ू बना है भाई मिरा
कोशिशें राएगाँ नहीं होंगी

या क़लम टूट जाएगा 'बिल्क़ीस'
या मिरी उँगलियाँ नहीं होंगी