घर में हूँ गो हुनूत-शुदा लाश की तरह
फिरती है रूह शहर में ओबाश की तरह
बाज़ीचा-ए-फ़राइना-ए-मिस्र देखना
हम आहनी गिरफ़्त में हैं ताश की तरह
ये जान-ए-ना-तवाँ भी है क्या समरा-ए-हयात
रख दी गई है काट के इक क़ाश की तरह
सुख की ज़मीं बसीत नहीं है तो क्या हुआ
दुख तो मिरा विशाल है आकाश की तरह
शायद मिरा वजूद ही पसमाँदा ख़ाक हो
ख़ाली है बज़्म-ए-यार में क़ल्लाश की तरह
खिंचता चला हूँ मैं किसी पाताल की तरफ़
हर अंजुमन है मरकज़-ए-पुरख़ाश की तरह
सौ बार मस्ख़ हो के भी तामीर-ए-ज़िंदगी
पुर-नूर है मनारा-ए-ज़ौ-पाश की तरह
बाक़ी है हम से दामन-ए-रोज़-ए-जज़ा की लाज
गो ज़िंदगी अता हुई पादाश की तरह
ग़ज़ल
घर में हूँ गो हुनूत-शुदा लाश की तरह
काविश बद्री