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घर को अब दश्त-ए-कर्बला लिक्खूँ | शाही शायरी
ghar ko ab dasht-e-karbala likkhun

ग़ज़ल

घर को अब दश्त-ए-कर्बला लिक्खूँ

रिफ़अत सरोश

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घर को अब दश्त-ए-कर्बला लिक्खूँ
आज ख़ुद अपना मर्सिया लिक्खूँ

सादा काग़ज़ पे ख़ून के आँसू
अब उसे ख़त में और क्या लिक्खूँ

बर्ग-ए-गुल पर सबा के दामन पर
नाम तेरा ही जा-ब-जा लिक्खूँ

ज़िक्र आए जो तेरी मंज़िल का
चाँद-सूरज को नक़्श-ए-पा लिक्खूँ

हो तिरा ही जमाल पेश-ए-नज़र
जब क़लम से ख़ुदा ख़ुदा लिक्खूँ

मैं तो ज़िंदा हूँ मर चुका है वो
अपने क़ातिल का मर्सिया लिखूँ

ऐ 'सरोश' अपनी ज़िंदगी को मैं
कौन से जुर्म की सज़ा लिक्खूँ