घर की हद में सहरा है
आगे दरिया बहता है
हैरत तक मफ़क़ूद हुई
इतना देखा-भाला है
जाने क्या उफ़्ताद पड़े
ख़्वाब में उस को देखा है
आहट कैसी बस्ती में
कौन ये रस्ता भूला है
रस्ते अपने अपने हैं
कौन किसी को समझा है
क़ैद से वहशी छूट गए
देखें क्या गुल खिलता है
उड़ने वाला पंछी क्यूँ
पँख समेटे बैठा है
ग़ज़ल
घर की हद में सहरा है
आशुफ़्ता चंगेज़ी