घर की दीवारों को हम ने और ऊँचा कर लिया
शोर-ए-सद-ए-महशर सुना और ख़ुद को बहरा कर लिया
बंद नाफ़े की तरह रहते हैं अपने आप में
अपनी ख़ुश्बू से मोअ'त्तर दिल का सहरा कर लिया
दर्द महजूरी का आईना है अपने रू-ब-रू
जब नज़र आया न तो अपना तमाशा कर लिया
दर पे हर उम्मीद के फैला दिया दामान-ए-दिल
कज-कुलाह-ए-ज़िंदगी ने ख़ुद को रुस्वा कर लिया
हम समझते हैं तिरे मल्बूस की तौक़ीर को
दाग़-ए-उर्यानी नज़र आया तो पर्दा कर लिया
जब कोई सूरत नज़र आई न हँसने की 'नदीम'
ग़म की हर तस्वीर को आँखों में यकजा कर लिया

ग़ज़ल
घर की दीवारों को हम ने और ऊँचा कर लिया
सलाहुद्दीन नदीम