घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
तुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जाना
ख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता है
चलते फिरते किसी दरबार में मत आ जाना
यूँही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सू
तुम किसी दाम-ए-तलबगार में मत आ जाना
दूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करना
किसी उम्मीद के मंजधार में मत आ जाना
अच्छे लगते हो कि ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम
हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना
चाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुम
रात को रौज़न-ए-दीवार में मत आ जाना
ग़ज़ल
घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
ऐतबार साजिद