EN اردو
घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो | शाही शायरी
ghar ke darwaze khule hon chor ka khaTka na ho

ग़ज़ल

घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो

सलीम शाहिद

;

घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो
बे-सर-ओ-सामान कोई शहर में ऐसा न हो

तीरगी के ग़ार से बाहर निकल कर भी तो देख
उस ज़मीं की कोख से सूरज कोई निकला न हो

मैं कि गोया भी न हो पाया किसी दीवार से
रह गया चुप सोच कर शायद कोई सुनता न हो

दश्त में जाने से पहले अपने दिल में झाँक लो
ख़ूबसूरत जिस्म के अंदर कोई कोई सहरा न हो

एहतियातन देख ही लो दम-ब-ख़ुद क्यूँ रह गए
तुम जिसे दीवार समझे हो वो दरवाज़ा न हो

मैं कि दुनिया की हर इक शय में हुआ हूँ आश्कार
देख तेरे आइने में भी मिरा चेहरा न हो

मोड़ हैं हर हर क़दम पर किस से पूछें रास्ता
फिर रहा हूँ शहर में जैसे कोई दीवाना हो

ये अकेला-पन तो 'शाहिद' शहर का आशोब है
या कोई तन्हा न हो या हर जगह वीराना हो