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घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू | शाही शायरी
ghar jala leta hai KHud apne hi anwar se tu

ग़ज़ल

घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू

शहज़ाद अहमद

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घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
काट देता है ज़मीं साया-ए-दीवार से तू

इस क़दर तेज़ न चल साँस उखड़ जाएगा
तय न कर राह-ए-तलब एक ही रफ़्तार से तू

गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
और हंगामे उठा लाया है बाज़ार से तू

तो ज़रा सा भी अगर फ़ित्ना है बरपा हो जा
अपनी क़ामत न बढ़ा तुर्रा-ए-दस्तार से तू

आँधियाँ उट्ठी हैं वो देख फ़लक सुर्ख़ हुआ
तोदा-ए-रेग पे बैठा है बड़े प्यार से तू

शब की तारीकी में मैं ने तुझे पहचान लिया
जब हुवैदा न हुआ सुब्ह के आसार से तू

मुद्दतों से तिरी आँखों के सदफ़ ख़ाली हैं
इस क़दर ख़ौफ़ न खा अब्र-ए-गुहर-बार से तू

तज़्किरे करता है जलते हुए सहराओं के
दश्त को देखता है शहर की दीवार से तू

मुंतज़िर है तिरा इक उम्र से जंगल 'शहज़ाद'
इस क़दर दूर न रह अपने तलबगार से तू