घर हुआ गुलशन हुआ सहरा हुआ
हर जगह मेरा जुनूँ रुस्वा हुआ
ग़ैरत-ए-अहल-ए-चमन को क्या हुआ
छोड़ आए आशियाँ जलता हुआ
हुस्न का चेहरा भी है उतरा हुआ
आज अपने ग़म का अंदाज़ा हुआ
मैं तो पहुँचा ठोकरें खाता हुआ
मंज़िलों पर ख़िज़्र का चर्चा हुआ
रहता है मय-ख़ाने ही के आस-पास
शैख़ भी है आदमी पहुँचा हुआ
पुर्सिश-ए-ग़म आप रहने दीजिए
ये तमाशा है मिरा देखा हुआ
ये इमारत तो इबादत-गाह है
इस जगह इक मय-कदा था क्या हुआ
ग़म से नाज़ुक ज़ब्त-ए-ग़म की बात है
ये भी दरिया है मगर ठहरा हुआ
इस तरह रहबर ने लूटा कारवाँ
ऐ 'फ़ना' रहज़न को भी सदमा हुआ
ग़ज़ल
घर हुआ गुलशन हुआ सहरा हुआ
फ़ना निज़ामी कानपुरी