घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
लोग दरवाज़ों से निकले कि मुहाजिर ठहरे
दिल के मदफ़न पे नहीं कोई भी रोने वाला
अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे
इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही
कौन जाने कि कोई शर्त-ए-सफ़र फिर ठहरे
पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं
उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफ़िर ठहरे
ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है
क्या पड़ी है जो ये आँधी मिरी ख़ातिर ठहरे
शाख़-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं
वो परिंदे जो अंधेरों के मुसाफ़िर ठहरे
अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे
चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे
तिश्नगी कब के गुनाहों की सज़ा है 'क़ैसर'
वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफ़िर ठहरे
ग़ज़ल
घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
क़ैसर-उल जाफ़री