EN اردو
घड़ी जीता घड़ी मरता रहा हूँ | शाही शायरी
ghaDi jita ghaDi marta raha hun

ग़ज़ल

घड़ी जीता घड़ी मरता रहा हूँ

नईम जर्रार अहमद

;

घड़ी जीता घड़ी मरता रहा हूँ
उसे जाते हुए तकता रहा हूँ

मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
ख़ुद अपने से गिला करता रहा हूँ

जो सारे शहर का था उस की ख़ातिर
मैं सारे शहर से लड़ता रहा हूँ

मैं वक़्त-ए-ख़ाना-ए-मज़दूर था सो
ब-तौर-ए-इम्तिहाँ कटता रहा हूँ

बहुत पहचानता हूँ ज़ाहिदों को
तुम्हारे घर का मैं रस्ता रहा हूँ