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घड़ी घड़ी न मुझे पूछ एक ताज़ा सवाल | शाही शायरी
ghaDi ghaDi na mujhe puchh ek taza sawal

ग़ज़ल

घड़ी घड़ी न मुझे पूछ एक ताज़ा सवाल

प्रेम कुमार नज़र

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घड़ी घड़ी न मुझे पूछ एक ताज़ा सवाल
उदास रात के सीने पे और बोझ न डाल

खिले हैं फूल सुख़न के जली है शम-ए-ख़याल
क़फ़स में झाँक के देखो क़फ़स-ज़दों का कमाल

उसी के ज़िक्र से हम शहर में हुए बद-नाम
वो एक शख़्स कि जिस से हमारी बोल न चाल

तिरे वजूद पे छा कर तिरी नज़र से गिरे
हमीं ने राज किया था हमीं हुए कंगाल

बिछड़ गया न वो आख़िर अधूरी बात लिए
मैं उस से कहता रहा रोज़ रोज़ बात न टाल

सितमगरी की नई रस्म ढूँड ली उस ने
हमारे सामने देता है दूसरों की मिसाल

कभी जो बैठ गए जा के दो घड़ी उस पास
'नज़र'-जी! धुल गया बरसों का जी से हुज़्न-ओ-मलाल