घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
उकता चुके हैं अपनी ही परछाइयों से हम
साया मेरे वजूद की हद से गुज़र गया
अब अजनबी हैं आप शनासाइयों से हम
ये सोच कर ही ख़ुद से मुख़ातिब रहे सदा
क्या गुफ़्तुगू करेंगे तमाशाइयों से हम
अब देंगे क्या किसी को ये झोंके बहार के
माँगेंगे दिल के ज़ख़्म भी पुरवाइयों से हम
'ज़र्रीं' क्या बहारों को मुड़ मुड़ के देखिए
मानूस थे ख़िज़ाँ की दिल-आसाइयों से हम
ग़ज़ल
घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
इफ़्फ़त ज़र्रीं