ग़ज़ल में दर्द का जादू मुझी को होना था
कि दश्त-ए-इश्क़ में बाहू मुझी को होना था
उसे तो चाँद भी बेचारगी में छोड़ गया
अँधेरी रात का जुगनू मुझी को होना था
ज़रा सी बात पे ये जोग कौन लेता है
तुम्हारे प्यार में साधू मुझी को होना था
बदन के और हवाले तो सब सलामत थे
मगर कटा हुआ बाज़ू मुझी को होना था
किसी का कर्ब मिरी ज़ात से उमडता है
किसी की आँख का आँसू मुझी को होना था
मैं इस्म रखता हूँ यारी में ग़म-गुसारी में
हर एक ज़ख़्म का दारू मुझी को होना था
घरों को छोड़ के सब होशियार कहलाएँ
वतन की मिट्टी का माधो मुझी को होना था
ये अपनी अपनी तबीअत की बात है 'साक़िब'
उसे जो फूल तो ख़ुशबू मुझी को होना था
ग़ज़ल
ग़ज़ल में दर्द का जादू मुझी को होना था
अासिफ़ साक़िब