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ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में | शाही शायरी
ghazab ki kaT thi ab ke hawa ke tanon mein

ग़ज़ल

ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में

रफ़ीक राज़

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ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में
शिगाफ़ पड़ गए हैं बे-ज़बाँ चटानों में

हमारे होंट ही पत्थर के हैं वगरना मियाँ
हम एक आग लिए फिरते हैं दहानों में

बगूला बन के उठा तो मैं था ख़राबे से
बपा हुआ न कोई हश्र आसमानों में

सियाह शहर की क़िस्मत में मेरा फ़ैज़ कहाँ
चराग़-ए-नज़्र हूँ जलता हूँ आस्तानों में

टपक पड़ा हूँ बिल-आख़िर मैं अपनी आँखों से
छुपा रखा था मुझे तुम ने किन ख़ज़ानों में

सुकूत को न कभी कर सदा से आलूदा
कि ये ज़बाँ है मुक़द्दस-तरीं ज़बानों में

सुख़न-शनास फ़सीलों का है सुकूत ग़ज़ब
सुख़न-तराज़ हैं ज़ंजीरें क़ैद-ख़ानों में