ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में
शिगाफ़ पड़ गए हैं बे-ज़बाँ चटानों में
हमारे होंट ही पत्थर के हैं वगरना मियाँ
हम एक आग लिए फिरते हैं दहानों में
बगूला बन के उठा तो मैं था ख़राबे से
बपा हुआ न कोई हश्र आसमानों में
सियाह शहर की क़िस्मत में मेरा फ़ैज़ कहाँ
चराग़-ए-नज़्र हूँ जलता हूँ आस्तानों में
टपक पड़ा हूँ बिल-आख़िर मैं अपनी आँखों से
छुपा रखा था मुझे तुम ने किन ख़ज़ानों में
सुकूत को न कभी कर सदा से आलूदा
कि ये ज़बाँ है मुक़द्दस-तरीं ज़बानों में
सुख़न-शनास फ़सीलों का है सुकूत ग़ज़ब
सुख़न-तराज़ हैं ज़ंजीरें क़ैद-ख़ानों में

ग़ज़ल
ग़ज़ब की काट थी अब के हवा के तानों में
रफ़ीक राज़