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गया है जब से दिखा जल्वा वो परी-रुख़्सार | शाही शायरी
gaya hai jab se dikha jalwa wo pari-ruKHsar

ग़ज़ल

गया है जब से दिखा जल्वा वो परी-रुख़्सार

मीर मोहम्मदी बेदार

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गया है जब से दिखा जल्वा वो परी-रुख़्सार
न ख़्वाब दीदा-ए-गिर्यां में है न दिल को क़रार

हज़ार रंग से फूले चमन में गो गुलज़ार
पर उस बग़ैर ख़ुश आती नहीं मुझे ये बहार

ब-रंग-ए-लाला-ए-सर मय-कशी नहीं तुझ बिन
कि ख़ून-ए-दिल से मैं हर रोज़ तोड़ता हूँ ख़ुमार

गुलों के मुँह पे न ये रंग-ए-आब-ओ-ताब रहे
वो रश्क-ए-बाग़ करे गर उधर को आ के गुज़ार

अजब नहिं कि बहा देवे ख़ाना-ए-मर्दुम
रहे गर अश्क-फ़िशाँ यूँही दीदा-ए-ख़ूँ-बार

रिहाई क्यूँकि हो या-रब मैं इस में हैराँ हूँ
कि एक दिल है मिरा तिस पे दर्द-ओ-ग़म है हज़ार

कहा मैं उस बुत-ए-अबरू-कमाँ की ख़िदमत में
ख़दंग-ए-जब्र ने तेरे किया है मुझ को निगार

न रहम तेरे दिल-ए-सख़्त में है ग़ैर-अज़-ज़ुल्म
न मेरे नाला-ए-जाँ-सोज़ में असर ऐ यार

न ताब हिज्र की रखता हूँ ने उमीद-ए-विसाल
ख़ुदा ही जाने कि क्या होगा उस का आख़िर-कार

हर एक दिन मुझे यूँ सूझता है जी तन से
निकल ही जाएगा हम-राह-ए-आह-ए-आतिश-बार

न तू मज़ार पे आवेगा ता-दम-ए-महशर
रहेगी दीदा-ए-गिर्यां को हसरत-ए-दीदार

अबस तू मुझ को डराता है अपने मरने से
हज़ार तुझ से मिरे मर गए हैं आशिक़-ए-ज़ार

ये सुन के कहने लगा वो सितमगर-ए-बे-रहम
मिरी बला से जो मर जाएगा तू ऐ 'बेदार'