गौरय्यों ने जश्न मनाया मेरे आँगन बारिश का
बैठे बैठे आ गई नींद इसरार था ये किसी ख़्वाहिश का
चंद किताबें थोड़े सपने इक कमरे में रहते हैं
मैं भी यहाँ गुंजाइश भर हूँ किस को ख़याल आराइश का
ठहर ठहर कर कौंद रही थी बिजली बाहर जंगल में
ट्रेन रुकी तो सरपट हो गया घोड़ा वक़्त की ताज़िश का
टीस पुराने ज़ख़्मों की थी नींद उचट गई आँखों से
भीग रहा था करवट करवट गोशा गोशा बालिश का
किसी के दिल पर दस्तक दूँगा किसी के ग़म का दुखड़ा हूँ
सुनने वाले समझ रहे हैं नग़्मा हूँ फ़रमाइश का
सर के ऊपर ख़ाक उड़ी तो सब दिल थाम के बैठ गए
ख़बर नहीं थी गुज़र चुका है मौसम अब्र-ए-नवाज़िश का
रेंग रही थीं अमर-लताएँ छुप छुप कर शादाबी में
उर्यां होती शाख़ों से अब भरम खुला ज़ेबाइश का
अपनी ही धुन में मगन रहता है सच्चे सुर का साज़िंदा
जैसे कि मैं हूँ मतवाला ख़ुद अपने तर्ज़-ए-निगारिश का
क़दम क़दम है वीराना कहीं और 'ख़लिश' अब क्या जाना
वर्ना शौक़ मुझे भी कल था सहरा की पैमाइश का
ग़ज़ल
गौरय्यों ने जश्न मनाया मेरे आँगन बारिश का
बद्र-ए-आलम ख़लिश