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गौहर-ए-अश्क से लबरेज़ है सारा दामन | शाही शायरी
gauhar-e-ashk se labrez hai sara daman

ग़ज़ल

गौहर-ए-अश्क से लबरेज़ है सारा दामन

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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गौहर-ए-अश्क से लबरेज़ है सारा दामन
आज-कल दामन-ए-दौलत है हमारा दामन

ऐ जुनूँ बाद-ए-बहारी से नहीं जुम्बिश में
कुछ गरेबान से करता है इशारा दामन

वस्ल की रात है बिगड़ो न बराबर तो रहे
फट गया मेरा गरेबान तुम्हारा दामन

जामा-चीं ने नहीं ये फूल चुने नर्गिस के
सैकड़ों आँखों से करता है नज़ारा दामन

बहुत ऐ दस्त-ए-जुनूँ तंग-नज़र आता है
बाँध दे दामन-ए-सहरा से हमारा दामन

ख़ूब पहुँचा दिया ऐ दस्त-ए-जुनूँ हाथों-हाथ
मिल गया आज गरेबान से सारा दामन

आमद आमद मिरे अश्कों की मगर सुन ली है
झाड़ कर गर्द जो सहरा ने सँवारा दामन