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गर्मी-ए-इश्क़ के बग़ैर लुत्फ़-ए-हयात राएगाँ | शाही शायरी
garmi-e-ishq ke baghair lutf-e-hayat raegan

ग़ज़ल

गर्मी-ए-इश्क़ के बग़ैर लुत्फ़-ए-हयात राएगाँ

निहाल सेवहारवी

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गर्मी-ए-इश्क़ के बग़ैर लुत्फ़-ए-हयात राएगाँ
इश्क़ है ज़िंदगी का रूप इश्क़ से ज़िंदगी जवाँ

हाए वो चंद साअतें गुज़रीं जो तेरे क़ुर्ब में
रश्क से देखती रही जिन को हयात-ए-जावेदाँ

उफ़-री मनाज़िल-ए-बुलंद तेरे हरीम-ए-नाज़ की
पा-ए-तलब को कितने तय करने पड़े हैं आसमाँ

बर्क़ की दस्तरस से दूर अस्र-ए-नौ के ऐ तुयूर
और बुलंद आशियाँ और बुलंद आशियाँ

गर्म हुसूल जू-ए-शीर हाँ यूँही मर्द-ए-तेशा-गीर
तेशा-ज़नी है दहर में अस्ल हयात-ए-कामरां

मोहतसिब-ए-शराब तो बज़्म-ए-जहाँ में हैं बहुत
ये भी कहो कि है कोई मोहतसिब-ए-ग़म-ए-निहाँ

जज़्बा-ए-हिम्मत ऐ 'निहाल' जब हो मिरा शरीक-ए-हाल
मेरे लबों पे आए क्यूँ शिकवा-ए-गर्दिश-ए-ज़माँ