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गर्दिश में आइना हो न क्यूँ रोज़गार का | शाही शायरी
gardish mein aaina ho na kyun rozgar ka

ग़ज़ल

गर्दिश में आइना हो न क्यूँ रोज़गार का

जावेद लख़नवी

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गर्दिश में आइना हो न क्यूँ रोज़गार का
चुल्लू में ख़ूँ लिए हूँ दिल-ए-बे-क़रार का

भड़की हुई थी सुर्ख़ गुलों से चमन में आग
दामन न जल गया हो नसीम-ए-बहार का

आए हैं ले के ग़ैर को वो पूछने मिज़ाज
तुम ने गिला किया था दिल-ए-बे-क़रार का

महशर की भी उम्मीद पे बे कार जान दी
क्या ए'तिबार वादा-ए-बे-ए'तिबार का

इतनी तो आरज़ू है कभी याद कर लें दोस्त
शायद कभी फिर आए ज़माना बहार का

साग़र उबल रहे हैं तो शीशों में जोश है
निकला है खिच के दम जो किसी बादा-ख़्वार का

तुम आए क्या कि रंग-ए-ज़माना बदल गया
गुल हो गया चराग़ हमारे मज़ार का

तस्वीर की रगों में लहू दौड़ने लगा
क्या आ गया जहान में मौसम बहार का