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गर्दिश-ए-मुक़द्दर का सिलसिला जो चल जाए | शाही शायरी
gardish-e-muqaddar ka silsila jo chal jae

ग़ज़ल

गर्दिश-ए-मुक़द्दर का सिलसिला जो चल जाए

याक़ूब तसव्वुर

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गर्दिश-ए-मुक़द्दर का सिलसिला जो चल जाए
दूसरा इ'ताब आए इक बला जो टल जाए

हुजरा-ए-गरेबाँ में हर जवाब रौशन है
बस ज़रा निगाहों का ज़ाविया बदल जाए

आँसुओं के बहने का ये असर तो होता है
ग़म ज़रा सा ढल जाए दिल भी कुछ सँभल जाए

मसअलों की गुत्थी भी यूँ कहाँ सुलझती है
इक सिरा जो हाथ आए दूसरा निकल जाए

इस अदा को क्या कहिए वो पड़ोस से आ कर
गुल नए सजा जाए चादरें बदल जाए

क्या अजब तसव्वुर है हम तलब के मारों का
हिद्दत-ए-तमन्ना से आसमाँ पिघल जाए