गर्दिश-ए-मय का इस पर न होगा असर मस्त आँखों का जादू जिसे याद है
वह नसीम-ए-गुलिस्ताँ से बहलेगा क्या तेरे आँचल की ख़ुशबू जिसे याद है
तिश्नगी की वो शिद्दत को भूलेगा क्या धूप की वो तमाज़त को भूलेगा क्या
तेरी बे-फ़ैज़ आँखें जिसे याद हैं तेरा बे-साया गेसू जिसे याद है
कोई मुम्ताज़ है और न शाह-ए-जहाँ सोज़ और साज़ है कुछ अलग ही यहाँ
ताज-महलों के वो ख़्वाब देखेगा क्या संग-ए-मरमर का ज़ानू जिसे याद है
उस को दुख-दर्द कोई छलेगा नहीं उस की दुनिया का सूरज ढलेगा नहीं
तेरे बचपन की ख़ुशियाँ जिसे याद हैं तेरे दामन का जुगनू जिसे याद है
ऐ 'अलीम' आफ़तों के ये लश्कर हैं क्या एक महशर नहीं लाख महशर हैं क्या
उस को फ़ित्नों की परवाह बिल्कुल नहीं तिरा इक एक घुंघरू जिसे याद है
ग़ज़ल
गर्दिश-ए-मय का इस पर न होगा असर मस्त आँखों का जादू जिसे याद है
अलीम उस्मानी