गर्दन-ए-शीशा झुका दे मिरे पैमाने पर
सन बरसता रहे साक़ी तिरे मयख़ाने पर
गर्मी-ए-हुस्न बढ़ी सर्द हुआ आशिक़-ए-ज़ार
शम्अ' के फूल से बिजली गिरी परवाने पर
गर्मियाँ हैं तो मिरा दीदा-ए-तर हाज़िर है
छोटे मिज़्गाँ का हज़ारा तिरे ख़स-ख़ाने पर
ग़श हुआ गर्दन-ए-साक़ी पे कभी आँख पे लूट
कभी शीशा पे गिरा मैं कभी पैमाने पर
वो भी ऐ 'क़द्र' था इक नक़्श-ए-क़दम हैदर का
रखते थे मोहर-ए-नबूवत जो नबी शाने पर
ग़ज़ल
गर्दन-ए-शीशा झुका दे मिरे पैमाने पर
क़द्र बिलगरामी