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गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम | शाही शायरी
gard ko kuduraton ki dho na pae hum

ग़ज़ल

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम

शहरयार

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गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम
दिल बहुत उदास है कि रो न पाए हम

वजूद के चहार सम्त रेगज़ार था
कहीं भी ख़्वाहिशों के बीज बो न पाए हम

रूह से तो पहले दिन ही हार मान ली
बोझ अपने जिस्म का भी ढो न पाए हम

दश्त में तो एक हम थे और कुछ न था
शहर के हुजूम में भी खो न पाए हम

एक ख़्वाब देखने की आरज़ू रही
इसी लिए तमाम उम्र सो न पाए हम