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गरचे हर सम्त मसाइल के हैं अम्बार बहुत | शाही शायरी
garche har samt masail ke hain ambar bahut

ग़ज़ल

गरचे हर सम्त मसाइल के हैं अम्बार बहुत

ख़ालिद यूसुफ़

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गरचे हर सम्त मसाइल के हैं अम्बार बहुत
अपनी तक़रीर पे है शैख़ को इसरार बहुत

हम ने माना कि तिरे शहर में सब अच्छा है
कोई ईसा हो तो मिल जाएँगे बीमार बहुत

ना-सपासी का समर दर-ब-दरी है यारो
याद आएगी ये टूटी हुई दीवार बहुत

आज फिर क़ाफ़िला-ए-हक़ का ख़ुदा हाफ़िज़ है
शहर वालों में नहीं जुरअत-ए-इंकार बहुत

हम जो अफ़रंग से हारे हैं तो दो बातों पर
वक़्त की क़द्र नहीं गर्मी-ए-गुफ़्तार बहुत

क़िस्सा-ए-ख़ैर न छुपने के बहाने लाखों
ख़बर-ए-बद पे उछलते हैं ये अख़बार बहुत

बात सुनने के लिए सिर्फ़ हवाएँ 'ख़ालिद'
बात करने के लिए दोस्त बहुत यार बहुत