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गर उन्हें है अपनी सूरत पर घमंड | शाही शायरी
gar unhen hai apni surat par ghamanD

ग़ज़ल

गर उन्हें है अपनी सूरत पर घमंड

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

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गर उन्हें है अपनी सूरत पर घमंड
हम को है अपनी मोहब्बत पर घमंड

मेरे उन के फिर भला क्यूँ-कर बने
ख़त्म है दोनों की ख़सलत पर घमंड

क्या नहीं देखी बुलंदी आह की
क्यूँ फ़लक करता है रिफ़अत पर घमंड

काम क़ारूँ के न आया माल-ओ-ज़र
मुनइमो बेजा है दौलत पर घमंड

बादशाह-ए-हफ़्त-किशवर है तो क्या
कर न दो दिन की हुकूमत पर घमंड

देख कर आईना मुझ को दंग है
मुझ को भी है अपनी हैरत पर घमंड

उन को अपनी सुब्ह-ए-महशर पर है नाज़
हम को अपनी शाम-ए-फ़ुर्क़त पर घमंड

छुप-छुपा कर देख भी लेंगे तुम्हें
हम को भी है अपनी जुरअत पर घमंड

कुछ नहीं कर सकता 'अंजुम' आप का
आसमाँ को है जो हसरत पर घमंड