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गर नशे में कोई बे-फ़िक्र-ओ-तअम्मुल बाँधे | शाही शायरी
gar nashe mein koi be-fikr-o-tammul bandhe

ग़ज़ल

गर नशे में कोई बे-फ़िक्र-ओ-तअम्मुल बाँधे

इस्माइल मेरठी

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गर नशे में कोई बे-फ़िक्र-ओ-तअम्मुल बाँधे
चश्म-ए-मय-गूँ को तिरी जाम-ए-पुर-अज़-मुल बाँधे

ज़िक्र-ए-क़ामत में अगर फ़िक्र तरक़्क़ी न करे
रश्क-ए-तूबा तो लिखे गो ब-तनज़्ज़ुल बाँधे

तब्अ की सिलसिला-जुम्बाँ जो परेशानी हो
गेसू-ए-ग़ालिया सा को तिरे सुम्बुल बाँधे

नाला तो वो है कि घबरा के उठा दे पर्दा
लेक नज़्ज़ारे की हिम्मत भी तहम्मुल बाँधे

कुछ न बन आएगी जब लूट मचाएगी ख़िज़ाँ
ग़ुंचा हर चंद गिरह कस के ज़र-ए-गुल बाँधे

रू-ब-रू उस के लब-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना न हिले
ज़ोर-ए-अफ़्सून-ए-नज़र से गए बिल्कुल बाँधे

हैं तिरे बंद-ए-क़बा उक़्दा-ए-दुश्वार मिरे
कि जो खोले न खुले और जो गए खुल बाँधे

न बचे पर न बचे सैल-ए-फ़ना से न बचे
गर कोई कंगुरा-ए-चर्ख़ पे भी पुल बाँधे

आँख खुलने भी न पाई थी कि उस ने फ़ौरन
बंद बुर्के के ब-अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल बाँधे

हाए वो सैद कि सय्याद के पीछे लपके
सर को फ़ितराक पे हर-दम ब-तफ़ावुल बाँधे