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गर कोई काट ले सर भी तिरे दीवाने का | शाही शायरी
gar koi kaT le sar bhi tere diwane ka

ग़ज़ल

गर कोई काट ले सर भी तिरे दीवाने का

जोशिश अज़ीमाबादी

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गर कोई काट ले सर भी तिरे दीवाने का
पर ये सौदा-ए-मोहब्बत है नहीं जाने का

मस्त रख याद में उस चश्म की ता-रोज़-ए-जज़ा
मुँह न दिखला मुझे या-रब किसी मय-ख़ाने का

मेरे दिल को भी न होवे हवस-ए-बोसा अगर
आश्ना लब से तिरे लब न हो पैमाने का

हुस्न और इश्क़ का मज़कूर न होवे जब तक
मुझ को भाता नहीं सुनना किसी अफ़्साने का

क्यूँ न मुज़्तर हूँ उसे देख के देखो तो सही
शम्अ के सामने क्या हाल है परवाने का

हाथ उठता नहीं ऐ यार जो सुलझाने से
दिल तिरी ज़ुल्फ़ से उलझा है मगर शाने का

गो कि मर जाए तिरे इश्क़ में 'जोशिश' लेकिन
शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा मुँह पे नहीं लाने का