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गर जुनूँ कर मुझे पाबंद-ए-सलासिल जाता | शाही शायरी
gar junun kar mujhe paband-e-salasil jata

ग़ज़ल

गर जुनूँ कर मुझे पाबंद-ए-सलासिल जाता

शाद लखनवी

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गर जुनूँ कर मुझे पाबंद-ए-सलासिल जाता
पाँव रखने का ठिकाना तो कहीं मिल जाता

मर भी जाता तो न मेरा मरज़-ए-सिल जाता
ग़म-ए-असनाम की छाती पे धरे सिल जाता

ख़त्त-ए-आरिज़ जो तरशने से मिटे है ये मुहाल
छीलने से नहीं क़िस्मत का लिखा छिल जाता

छूटता ईद के दिन भी न गिरफ़्तारों को
सूरत-ए-तौक़-ए-गुलू-गीर गले मिल जाता

जब चमकती है तिरी तेग़ तबस्सुम ऐ गुल
दहन-ए-ज़ख़्म है ग़ुंचे की तरह खिल जाता

दिल में होता न मिरे दख़्ल बला-ए-काकुल
साया रहता न कभी गिर्या मकाँ किल जाता

रा'शा-अंदाम हूँ ये ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से ऐ 'शाद'
कोई मुजरिम हो कलेजा है मिरा हिल जाता