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गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता | शाही शायरी
gar ishq se waqif mare mahbub na hota

ग़ज़ल

गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता

हसरत अज़ीमाबादी

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गर इश्क़ से वाक़िफ़ मरे महबूब न होता
होता न मैं महजूर वो महजूब न होता

आफ़त-तलब अपने जो दिल ओ दीदा न होते
तालिब मैं तिरा तू मिरा मतलूब न होता

मेरी सी तरह इश्क़ से होता कभी बेताब
एजाज़-नुमा सब्र का अय्यूब न होता

नामे का मिरे ये था जवाब ऐ मह-ए-नौ-ख़त
ये क़ाएदा-ए-क़ासिद-ओ-मक्तूब न होता

तर्ग़ीब-ए-वफ़ा करना तुझे मुझ पे रवा था
गर शेवा जफ़ा का तिरा मर्ग़ूब न होता

'हसरत' न अगर उस का क़द ओ ज़ुल्फ़ बनाते
दुनिया में कहीं फ़ित्ना-ओ-आशोब न होता